संस्कृति और संस्कार

संस्कृति और संस्कार 

भारत संस्कृतियों का देश है प्रत्येक भारतवासी अपनी संस्कृति और भारतीय होने पर गर्व करता है । क्या हम अपनी संस्कृति का पालन कर रहे हैं? न्यू ईयर हो या वैलेंटाइन यह तो हम बखूबी मना लेते हैं लेकिन भगवान राम और कृष्ण का जन्मोत्सव हो या बापू और सुभाष चंद्र बोस आदि स्वतंत्रता सेनानियों की जयंतियों को हम यूं ही भूल जाया करते हैं और याद भी करते हैं तो महज एक औपचारिकता के अलावा कुछ नहीं होता। संस्कृति और संस्कारों पर तो हमने बड़ी बड़ी सभाएं और संगोष्ठियां कर ली है लेकिन कभी सोचा है कि हम उसका निर्वहन कहां तक कर पाए हैं । व्यक्ति वर्तमान समय में इतना व्यस्त हो गया है कि अपनी संस्कृति को उत्सव के रूप में मनाना तो दूर शिष्टाचार का पालन करना भी उसके लिए बोझ हो गया है। बड़ों का सम्मान, गुरुजनों का आदर , लोगों की मदद आदि सभी कार्य अपरिचित से हो गए हैं।
कहा जा सकता है कि स्वार्थ के तराजू पर हमने संस्कारों और शिष्टाचारों को हल्का कर दिया है, कार्य की व्यस्तता ने इन्हें धूमिल कर दिया है। व्यस्ततम जीवन में भी आपके द्वारा किया जाने वाला शिष्टाचार युक्त व्यवहार आपके अपनों को खुशी देता है ,घर में सुख और समृद्धि लाता है और आपका मन आनंद से भर जाता है लेकिन अपने कार्य को इतना महत्व दिया जा रहा है कि अपने जीवन के महत्वपूर्ण कर्तव्य का पालन करना भी हमें उचित नहीं लगने लगा, हमने अपनों से बात करने का भी समय नहीं निकाला, अपने संबंधियों , दोस्तों और माता-पिता के लिए भी समय निकालना उचित नहीं समझा । व्यक्ति अपने ऑफिस के कार्य के बोझ को पत्नी और बच्चों को डांटकर कम करना चाहता है , विनम्रता की जगह अकड़ उसकी शान हो गई है लेकिन वह यह भूल जाता है कि काम की व्यस्तता और उसकी थकान को प्यार से बांटा जा सकता है। व्यक्ति ने आज तक अपनी महत्वाकांक्षाओं को सिर्फ दूसरों की इच्छाओं का दमन कर पूरा करना चाहा है लेकिन ऐसा नहीं हो सकता है और यदि ऐसा हुआ भी तो सुख और चैन उसके लिए शब्दकोश के शब्द मात्र बनकर रह जाएंगे। हमारे इस प्रकार के व्यवहार के उपरांत हम आशा करते हैं कि हमारे बच्चे संस्कारवान बने , शिष्टाचारी बने तो यह एक चिंतन का विषय है कि हमने उन्हें क्या सिखाया? वे हमारे कार्यों का, विचारों का , व्यवहार का, आदत का अनुकरण करते हैं। इसके लिए आवश्यकता है कि हम सभी संस्कारों और शिष्टाचारों का पालन करें , जिन्हें हम अपने बच्चों में भी देखना चाहते हैं। क्योंकि बच्चे कोरी स्लेट की तरह होते हैं जिस पर वह सब कुछ लिखा जा सकता है जो हम चाहते हैं लेकिन ध्यान रहे इस कोरी स्लेट से मिटाया कुछ भी नहीं जा सकता। इसलिए संस्कारों एवं शिष्टाचार की ऐसी छाप उन पर छोड़िए जिससे हम अपने कर्तव्य पर और बच्चों के व्यवहार पर गर्व कर सकें।

धन्यवाद



सुरेश कुमार पाटीदार 

अवकाश हेतु प्रार्थना पत्र।